Afganistan : तालिबान की जन्‍म कुण्‍डली और अमेरिकी साम्रा्ज्‍यवाद से उसके रिश्‍तों का काला इतिहास

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 अफ़ग़ानिस्‍तान के राष्‍ट्रपति अशरफ़ ग़नी के काबुल से कायरतापूूर्ण पलायन के बाद वहाँ तालिबान की हुकूमत क़ायम होना अब लगभग तय हो चुका है। सत्‍ता में आने के बाद तालिबान अफ़ग़ानिस्‍तान को एक बार फिर से कट्टर इस्‍लामी अमीरात में तब्‍दील करने की पूरी कोशिश करेगा। अफ़ग़ानिस्‍तान में अमेरिकी साम्राज्‍यवादी दख़ल से पैदा हुए ये ख़ौफ़नाक हालात अफ़ग़ानी लोगों के लिए पहले से कहीं ज्‍़यादा तबाही और बर्बादी का सबब बनेंगे और साथ ही मध्‍य एशिया, पश्चिम एशिया और दक्षिण एशिया के समूचे क्षेत्र में भी अशान्ति और अस्थिरता पैदा करेंगे। इसकी वजह से इस इलाक़े के सामरिक समीकरणों और अन्‍तरसाम्राज्‍यवादी प्रतिस्‍पर्द्धा के स्‍वरूप में भी बुनियादी बदलावों की आशंका है। 

तालिबान के इस उभार को समझने के लिए हमें अफ़ग़ानिस्‍तान के आधुनिक इतिहास पर एक नज़र दौड़ानी होगी।  

मध्‍य एशिया और दक्षिण एशिया के सन्धिबिन्‍दु पर स्थित होने की वजह से अफ़ग़ानिस्‍तान 19वीं सदी से ही साम्राज्‍यवादी हस्‍तक्षेप का अखाड़ा रहा है। 19वीं सदी के अन्‍त और 20वीं सदी की शुरुआत में ब्रिटिश साम्राज्‍य और रूसी ज़ार साम्राज्‍य के बीच अफ़ग़ानिस्‍तान पर क़ब्‍ज़ा करने की होड़ थी, हालाँकि वे उसपर कभी भी पूरा क़ब्‍ज़ा करने में कामयाब नहीं हो पाये। 1919 में तीसरे आंग्‍ल-अफ़ग़ान युद्ध में अंग्रेज़ों को धूल चटाने के बाद अफ़ग़ानिस्‍तान पूरी तरह से आज़ाद हो गया। साम्राज्‍यवादी हस्‍तक्षेप से आज़ादी मिलने बाद अफ़ग़ानी बादशाह ग़ाज़ी अमानुल्‍ला ख़ान ने तुर्की के मुस्तफ़ा कमाल अतातुर्क की तर्ज़ पर अफ़ग़ानिस्‍तान का आधुनिकीकरण करने की कोशिश की परन्‍तु वह कामयाब नहीं हो सका। उसके बाद 1973 तक अफ़ग़ानिस्‍तान में बाहदशाहत क़ायम रही। 1973 में बादशाह ज़ाहि‍र शाह के तख्‍़ता पलट के बाद बादशाहत का ख़ात्‍मा हुआ और दाऊद ख़ान पहला राष्‍ट्रपति बना। 1978 में एक और तख्‍़तापलट हुआ जिसके बाद वामपन्‍थी पार्टी ‘पीपल्‍स डिमोक्रेटिक पार्टी ऑफ़ अफ़ग़ानिस्‍तान’ (पीडीपीए) सत्‍ता में आयी। 
1978 के तख्‍़तापलट को सावर क्रान्ति के नाम से जाना जाता है क्‍योंकि यह फ़ारसी कैलेण्‍डर के दूसरे महीने सावर में हुआ था। संभवत: यह नामकरण अक्‍टूबर क्रान्ति की तर्ज़ पर किया गया था, परन्‍तु इसमें अक्‍टूबर क्रान्ति जैसा कुछ भी नहीं था। यह मज़दूरों और किसानों के जनउभार की बजाय सैन्‍य शैली में किया गया तख्‍़तापलट था। पीडीपीए का सामाजिक आधार बेहद सीमित था। उसमें मुख्‍य तौर पर परचम और ख़ल्‍क़ नामक दो धड़े थे। परचम धड़े का सामाजिक आधार शहरी मध्‍यवर्ग के बीच था और उसमें राष्‍ट्रवादी झुकाव था जबकि ख़ल्‍क़ मज़दूरों के बीच लोकप्रिय था और वह वर्गीय आधार पर राजनीति करने का पक्षधर था। इन दोनों ही धड़ों का आधार अफ़ग़ानिस्‍तान के ग्रामीण इलाक़ों में न के बराबर था जबकि उस समय वहाँ की 86 फ़ीसदी आबादी गाँवों में रहती थी।
 
पीडीपीए जब सत्‍ता में आयी तो उस समय अफ़ग़ानि‍स्‍तान एक बेहद पिछड़ा हुआ समाज था। वहाँ एक भी गाँव में बिजली नहीं थी और रेलवे का नामोनिशान तक नहीं था। क़रीब डेढ़ करोड़ की आबादी वाले इस मुल्‍क में केवल 5 फ़ीसदी लोगों को ही तालीम हासिल थी। अफ़ग़ानि‍स्‍तान के अलग-अलग हिस्‍सों में पश्‍तून, ताजिक, उज़बेक, हज़ारा, तुर्कमान, और बलूच जातियों के इस्‍लामिक कबीले रहते थे जो बेहद पिछड़े सामन्‍ती सम्‍बन्‍धों व रीति-रिवाज़ों से बँधे थे। खेती-योग्‍य 45 फ़ीसदी ज़मीन पर ऊपर के 5 फ़ीसदी भूस्‍वीमियों का क़ब्‍ज़ा था। औद्योगिक विकास बेहद सीमित था और मज़दूर वर्ग की तादाद बहुत कम थी। इन हालात में सत्‍ता में आने के बाद पीडीपीए ने ग़रीब किसानों और मेहनतकशों के बीच पार्टी का आधार विस्‍तारित किये बिना ही आधुनिकीकरण और रैडिकल भूमि सुधारों की मुहिम छेड़ दी। ग्रामीण कबीलों के सरदार और भूस्‍वामियों की अपने-अपने कबीलों पर पकड़ थी, लिहाज़ा वे लोगों को यह समझाने में कामयाब होने लगे कि पीडीपीए की सत्‍ता उनकी तहजीब और मज़हब की विरोधी है। उस समय अफ़ग़ानि‍स्‍तान के पड़ोसी मुल्‍क पाकिस्‍तान में जनरल ज़ि‍या-उल-हक़ की फ़ौजी हुकूमत क़ायम थी और वह भारत के साथ होड़ में पाकिस्‍तान को रणनीतिक बढ़त दिलाने के लिए अफ़ग़ानिस्‍तान की सत्‍ता पर अपना नियंत्रण चाहता था। इस मक़सद से उसने पाकिस्‍तान की ख़ुफ़ि‍या एजेंसी आईएसआई को अफ़ग़ानिस्‍तान के पश्‍तून लोगों के बीच पीडीपीए की सरकार के ख़ि‍लाफ़ ज़हर उगलने के लिए लगा दिया। इसमें उसे सऊदी अरब से आर्थिक व कट्टरपन्‍थी वहाबी विचारधारा के रूप में मदद मिली। 
इस प्रकार काबुल की सत्‍ता के ख़ि‍लाफ़ जेहाद छेड़ने वाले इस्‍लामी लड़ाके अस्तित्‍व में आते हैं जिन्‍हें मुजाहिद्दीन कहा जाता है। इन मुजाहिद्दीनों को इस्‍लामिक कट्टरपन्‍थ की ज़हरीली वैचारिक ख़ुराक़ अफ़ग़ानिस्‍तान की सीमा से लगे पाकिस्‍तानी प्रान्‍त नॉर्थ वेस्‍ट फ्रण्टियर प्रोविंस (जिसे आज ख़ैबर पख़्तूनख़्वा के नाम से जाना जाता है) के मदरसों में मिली। यही वह समय था जब अमेरिका ने मुजाहिद्दीनों को बढ़ावा देने के लिए आर्थिक व सैन्य मदद की नीति पर अमल करना शुरू किया। तत्‍कालीन अमेरिकी राष्‍ट्रपति जिमी कार्टर के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेंस्की ने ख़ैबर दर्रे का दौरा किया और एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में बन्दूक लेकर वहाँ मुजाहिद्दीनों को सम्बोधित करते हुए कहा कि अब यही उन्हें काफ़िरों से मुक्ति दिला सकते हैं। 
ये वो हालात थे जिनमें 1979 में सोवियत संघ की सामाजिक साम्राज्‍यवादी हुकूमत ने अफ़ग़ानिस्‍तान में सैन्‍य हस्‍तक्षेप की शुरुआत की जिसके बाद अफ़ग़ानिस्‍तान दो महाशक्तियों के बीच जारी शीतयुद्ध का नया अखाड़ा बन गया। कार्टर के बाद अमेरिका के अगले राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने सोवियत संघ को हराने के लिए अफ़गानी जेहादियों को आर्थिक मदद और अत्‍याधुनिक हथियारों की आपूर्ति को अभू‍तपूर्व रूप से बढ़ा दिया। यहाँ तक कि रीगन ने मुजाहिद्दीनों के नेताओं को व्हाइट हाउस में ससम्मान आमंत्रित किया और उन्‍हें सम्बोधित करते हुए कहा कि वे नैतिक रूप से अमेरिका के स्‍थापक वाशिंगटन और जैफ़रसन जैसे नेताओं के समतुल्य हैं। रीगन ने मुजाहिद्दीनों के जेहाद को इतना महत्‍वपूर्ण माना कि उस समय लॉन्‍च होने वाले अमेरिकी अन्तरिक्ष यान कोलम्बिया को अफ़गानियों के संघर्ष के नाम समर्पित कर दिया गया। यही वह दौर था जब सऊदी अरब के धनपशु ओसामा बिन लादेन ने अमेरिका की मदद से सोवियत संघ के ख़ि‍लाफ़ जेहाद करने के लिए अफ़ग़ानिस्‍तान-पाकिस्‍तान सीमा को अपना अड्डा बनाया। 
अमेरिकी हस्‍तक्षेप के बाद सोवियत संघ समर्थित पीडीपीए की सत्‍ता कमज़ोर पड़ने लगी और उसे एक-एक करके तमाम सुधारों की नीतियाँ वापस लेनी पड़ीं। अमेरिका, पाकिस्‍तान और सऊदी अरब से समर्थन पाने वाले मुजाहिद्दीनों के सामने सोवियत सेना भी अपने मक़सद में कामयाब नहीं हो सकी और अन्‍तत: 1989 में उसे अफ़ग़ानिस्‍तान से वापसी करनी पड़ी। उसके बाद से ही पीडीपीए की सरकार की उल्‍टी गिनती शुरू हो चुकी थी। 1992 तक काबुल मुजाहिद्दीनों के क़ब्‍ज़े में आ चुका था। लेकिन मुजाहिद्दीनों के कई धड़ों के बीच आपस में सत्‍ता के लिए जंग छिड़ गयी जिससे अफ़ग़ानिस्‍तान बर्बरता के युग में प्रवेश करता गया। यही वह दौर था जब पाकिस्‍तान और सऊदी अरब की मदद से पश्‍तून मुजाहिद्दीनों के बीच से ही तालिबान नामक एक धुर इस्‍लामिक कट्टरपन्‍थी संगठन वजूद में आता है जो अन्‍य मुजाहिद्दीनों से इस मायने में अलग था कि वह इस्‍लामिक क़ानून शरिया को तमाम कबायली क़ानूनों व रीति-रिवाजों के ऊपर रखने और एक सख्‍़त इस्‍लामी अमीरात क़ायम करने की बात करता था। सोवियत संघ की अफ़ग़ानिस्‍तान की वापसी और बाद में उसके पतन और अमेरिका द्वारा छेड़े गये खाड़ी युद्ध के बाद मुजाहिद्दीन अपने पूर्व आक़ा अमेरिका के भी विरोधी हो गए थे। इसी दौर में ओसामा बिन लादेन ने अल क़ायदा की स्‍थापना की और अमेरिका के ख़ि‍लाफ़ जेहाद का ऐलान किया। 
तालिबान का क्रूर शासन और अमेरिकी साम्राज्‍यवाद से उसके बढ़ते अन्तरविरोध 
1996 में तालिबान काबुल की सत्‍ता पर क़ब्‍ज़ा करने और अफ़ग़ानिस्‍तान में कट्टर इस्‍लामी अमीरात क़ायम करने में कामयाब हो जाता है जो वहाँ के आम लोगों, ख़ासकर महिलाओं, के लिए नरक के समान था। छोटे-छोटे अपराधों के लिए भी सरेआम कोड़े लगाए जाते थे, चोरी करने वाले के हाथ काट दिये जाते थे। सरेआम फ़ॉंसी देने का भी चलन था। हर तरह के संगीत, नृत्‍य, मनोरंजन, फ़ैशन आदि को प्रतिबन्धित कर दिया गया और महिलाओं की नौकरी व लड़कियों की पढ़ाई पर सख्‍़ती से पाबन्‍दी लगा दी गयी। तालिबान के दौर में अफ़ग़ानिस्‍तान की अर्थव्‍यवस्‍था का आधार अफ़ीम की खेती और उसके व्‍यापार तथा मध्‍य एशिया और पाकिस्‍तान तथा ईरान के बीच होने वाले व्‍यापार पर कर था।
तालिबान के शासन में अल क़ायदा सहित तमाम इस्‍लामिक कट्टरपन्‍थी संगठनों को फलने-फूलने के लिए अनुकूल माहौल मिला जिसकी वजह से उनके अमेरिका से अन्‍तरविरोध बढ़ते गए। 2001 में अल क़ायदा द्वारा अमेरिका पर 11 सितम्‍बर के आतंकी हमले के बाद अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्‍तान पर हमला कर दिया। ग़ौरतलब है कि 11 सितम्‍बर के आतंकी हमले से पहले ही तत्‍कालीन अमेरिकी राष्‍ट्रपति जॉर्ज डब्‍ल्‍यू बुश, उपराष्‍ट्रपति डिक चेनी और रक्षामंत्री डोनॉल्‍ड रम्सफ़ेल्‍ड की नवरूढ़ि‍वादी सत्‍ता अफ़ग़ानिस्‍तान, इराक़, सीरिया और ईरान पर हमला करके पश्चिम एशिया के तेल व गैस भण्‍डार पर अपना क़ब्‍ज़ा करने की योजना बना चुकी थी। 11 सितम्‍बर की घटना ने उन्‍हें अपनी इस योजना को अमली जामा पहनाने का बहाना दे दिया। 
तालिबान का फिर से संगठित होना
अफ़ग़ानिस्‍तान पर हमला करके अमेरिका ने तालिबान को सत्‍ता से तो हटा दिया था, परन्‍तु कुछ ही वर्षों के भीतर अफ़ग़ानिस्‍तान और पाकिस्‍तान के पश्‍तून बाहुल्‍य इलाक़ों में उसने अपने आप को फिर से संगठित कर लिया। अमेरिकी हमले के दौरान बड़ी संख्‍या में अफ़ग़ान शरणार्थियों ने पाकिस्‍तान के ख़ैबर पख्‍़तूनख्‍़वाह प्रान्‍त में पनाह ली। पाकिस्‍तान की मदद से तालिबान ने इन शर‍णार्थियों के बीच से नये सिरे से लड़ाके तैयार किये जिनको वैचारिक ख़ुराक़ पाकिस्‍तान के मदरसों से मिलती रही, हालाँकि इसी बीच पाकिस्‍तान के भीतर तहरीक़-ए-तालिबान पाकिस्‍तान नामक संगठन खड़ा हो गया जो पाकिस्‍तान की सत्‍ता को ही अपना मुख्‍य दुश्‍मन मानने लगा और वहाँ आतंकवादी घटनाएँ अंजाम देने लगा। 
तालि‍बान के फिर से संगठित हो जाने के बाद अमेरिका का अफ़ग़ानिस्‍तान युद्ध लम्‍बा खिंचता चला गया जिससे अमेरिकी सरकार का ख़र्च बढ़ने लगा और आर्थिक संकट के दौर में वह बोझ बनता चला गया। यही वजह है कि पिछले कई सालों से अमेरिकी रणनीतिकार अफ़ग़ानिस्‍तान से सेना वापस बुलाने पर ज़ोर दे रहे थे क्‍योंकि अमेरिकी सेना की मौजूदगी से अमेरिका को कोई रणनीतिक लाभ नहीं हासिल हो रहा था। बराक ओबामा के कार्यकाल से ही तालिबान से बातचीत की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। ट्रम्‍प के कार्यकाल में अफ़ग़ानिस्‍तान से अमेरिकी सेना की वापसी की तैयारियाँ होने लगी थीं। फ़रवरी 2020 में ही अमेरिका और तालिबान के बीच वापसी को लेकर समझौता भी हो चुका था जिसे वर्तमान बाइडेन प्रशासन ने लागू किया। इसी का नतीजा आज हमारे सामने है।

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